इन्सान की विडम्बना
इंसांन झूकता नहीं ।
झुकाया चला जाता है।।
अपने जसबात को छिपा कर।
अपनो के लिए जीना चाहता है।।
इंसांन झूकता नहीं ।
झुकाया चला जाता है।।
पल्भर नीन्द आती नही रात्रि गुजर जाती है ।
अपने सारे गम छीपाता चला जाता है ।।
एक घड़ी नही रुकता मंजिल को पाने मे ।
काटे आय कितने ही रास्ते मे उसके ।
अपने मन और चित को एकत्रित करता चला जाता है ।।
कभी अपनो के लिये झुक जाता है ।
कभी अपने उसको झुकाते है ।।
कभी रिस्तो के लिये झुक जाता है ।
कभी रिस्ते उसको झुकाते है ।।
कभी अपने उसको झुकाते है ।।
कभी रिस्तो के लिये झुक जाता है ।
कभी रिस्ते उसको झुकाते है ।।
कभी प्यार से झुक जाता हे ।
कभी प्यार उसको झुका देता हे ।
कभी नौकरी तो कभी चाकरी ।।
कभी पैसा झुका देता है ।
तो कभी पैसो के लिये झुक जाता है ।।
समझना मुश्किल है बहुत ।
ये किस्मत का खेल ।।
ये अध्भ्उत रचना भगवान की ।
है तेरी लीला अपरंपार ।।
समझ लिया तो समजित ज्ञान का भण्डार ।।
ये ही तो है जुनून इन्सान का ।।
समझ लिया तो समजित ज्ञान का भण्डार ।।
ये ही तो है जुनून इन्सान का ।।
इंसांन झूकता नहीं ।
झुकाया चला जाता है।।
अपने जसबात को छिपा कर।
अपनो के लिए जीना चाहता है।।
कृपया प्रस्तुत कविता को माध्यमिक कक्षा के लिये प्रिंट करने की लिय्र कमेंट बॉक्स मै कमेंट करे ।- (हाँ या ना)
बिदेश्वरी उनियाल द्वारा लिखित
धन्यवाद 🙏
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